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अध्याय 11: विराट रूप


श्लोक 25

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि |
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास || २५ ||

शब्द-प्रतिशब्द अर्थ

दंष्ट्रा – दाँत; करालानि – विकराल; च – भी; ते - आपके; मुखानि – मुखों को; दृष्ट्वा – देखकर; एव – इस प्रकार; काल-अनल – प्रलय की; सन्नि-भानि – मानो; दिशः – दिशाएँ; न – नहीं; जाने – जानता हूँ; न – नहीं; लभे – प्राप्त करता हूँ; च – तथा; शर्म – आनन्द; प्रसीद – प्रसन्न हों; देव-ईश – हे देवताओं के स्वामी; जगत्-निवास – हे समस्त जगतों के आश्रय |

भावार्थ

हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्नहों ! मैं इस प्रकार से आपके प्रल्याग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों कोदेखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा | मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ |

तात्पर्य

धृतराष्ट्र के सारे पुत्र अपने समस्त सहायकराओं सहित तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं हमारे प्रमुख योद्धा भी आपके विकराल मुखमें प्रवेश कर रहे हैं | उनमें से कुछ के शिरों को तो मैं आपके दाँतों के बीचचूर्णित हुआ देख रहा हूँ |