अनपेक्षः श्रुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः |
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः || १६ ||.
अनपेक्षः - इच्छारहित; शुचिः - शुद्ध; दक्षः - पटु; उदासीनः - चिन्ता से मुक्त; गत-व्यथः - सारे कष्टों से मुक्त; सर्व-आरम्भ - समस्त प्रयत्नों का; परित्यागी - परित्याग करने वाला; यः - जो; मत्-भक्तः - मेरा भक्त; सः - वह; मे - मेरा; प्रियः - अतिशय प्रिय |
मेरा ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिन्तारहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, मुझे अतिशय प्रिय है |
भक्त को धन दिया जा सकता है, किन्तु उसे धन अर्जित करने के लिए संघर्ष नहीं करना चाहिए | भगवत्कृपा से यदि उसे स्वयं धन की प्राप्ति हो, तो वह उद्विग्न नहीं होता | स्वाभाविक है कि भक्त दिनभर में दो बार स्नान करता है और भक्ति के लिए प्रातःकाल जल्दी उठता है | इस प्रकार वह बाहर तथा बितर से स्वच्छ रहता है | भक्त सदैव दक्ष होता है, क्योंकि वह जीवन के समस्त कार्यकलापों के सार को जानता है और प्रामाणिक शास्त्रों में दृढ़विश्वास रखता है | भक्त कभी किसी दल में भाग नहीं लेता, अतएव वह चिन्तामुक्त रहता है | समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण कभी व्यथित नहीं होता, वह जानता है कि उसका शरीर एक उपाधि है, अतएव शारीरिक कष्टों के आने पर वह मुक्त रहता है | शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी वास्तु के लिए प्रयास नहीं करता, जो भक्ति के नियमों के प्रतिकूल हो | उदाहरणार्थ, किसी विशाल भवन को बनवाने में काफी शक्ति लगती है, अतएव वह कभी ऐसे कार्य में हाथ नहीं लगाता, जिससे उसकी भक्ति में प्रगति न होती हो | वह भगवान् के लिए मंदिर का निर्माण करा सकता है और उसके लिए वह सभी प्रकार की चिन्ताएँ उठा सकता है, लेकिन वह अपने परिवार वालों के लिए बड़ा स मकान नहीं बनाता |