उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाह्रितः |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्र्वरः || १७ ||
उत्तमः - श्रेष्ठ; पुरुषः - व्यक्ति, पुरुष; तु - लेकिन; अन्यः - अन्य; परम - परम; आत्मा - आत्मा; इति - इस प्रकार; उदाहृतः - कहा जाता है; यः - जो; लोक - ब्रह्माण्ड के; त्रयम् - तीन विभागों में; आविश्य - प्रवेश करके; विभिर्ति - पालन करता है; अव्ययः - अविनाशी; ईश्र्वरः - भगवान् |
इन दोनों के अतिरिक्त एक परम पुरुष परमात्मा है जो साक्षात् अविनाशी है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है ।
इस श्लोक का भाव कठोपनिषद् (२.२.१३) तथा श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (६.१३) अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है । वहाँ यह कहा गया है कि असंख्य जीवों के नियन्ता जिनमें से कुछ बद्ध हैं और कुछ मुक्त हैं एक परम पुरुष है जो परमात्मा है । उपनिषद् का श्लोक इस प्रकार है नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् । सारांश यह है कि बद्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीवों में से एक परम पुरुष भगवान् है जो उन सबका पालन करता है और उन्हें कर्मों के अनुसार भोग की सुविधा प्रदान करता है । वह भगवान् परमात्मा रूप में सबके हृदय में स्थित है । जो बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समझ सकता है वही पूर्ण शान्ति लाभ कर सकता है अन्य कोई नहीं ।