अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते || २५ ||
अनुबन्धम्– भावी बन्धन का; क्षयम्– विनाश; हिंसाम्– तथा अन्यों को कष्ट; अनपेक्ष्य– परिणाम पर विचार किये बिना; च– भी; पौरुषम्– सामर्थ्य को; मोहात्– मोह से; आरभ्यते– प्रारम्भ किया जाता है; कर्म– कर्म; यत्– जो; तत्– वह; तामसम्– तामसी; उच्यते– कहा जाता है |
जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है, वहतामसी कहलाता है |
मनुष्य को अपने कर्मों का लेखा राज्य को अथवा परमेश्र्वरके दूतों को, जिन्हें यमदूत कहते हैं, देना होता है | उत्तरदायित्वहीन कर्मविनाशकारी है, क्योंकि इससे शास्त्रीय आदेशों का विनाश होता है | यह प्रायः हिंसा परआधारित होता है और अन्य जीवों के लिए दुखदायी होता है | उत्तरदायित्व से हीन ऐसाकर्म अपने निजी अनुभव के आधार पर किया जाता है | यह मोह कहलाता है | ऐसा समस्त मोहग्रस्त कर्म तमोगुण के फलस्वरूप होता है |