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अध्याय 18: उपसंहार - संन्यास की सिद्धि


श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः |
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्र्वतं पदमव्ययम् || ५६ ||

शब्द-प्रतिशब्द अर्थ

सर्व– समस्त; कर्माणि– कार्यकलाप को; अपि– यद्यपि;सदा– सदैव; कुर्वाणः– करते हुए; मत्-व्यपाश्रयः – मेरे संरक्षण में; मत्-प्रसादात्– मेरी कृपा से; अवाप्नोति– प्राप्त करता है; शाश्र्वतम्– नित्य; पदम्– धाम को; अव्ययम्– अविनाशी |

भावार्थ

मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है |

तात्पर्य

मद्-व्यपाश्रयः शब्द का अर्थ है परमेश्र्वर के संरक्षण में | भौतिक कल्मष से रहित होने के लिए शुद्ध भक्त परमेश्र्वर या उनके प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के निर्देशन में कर्म करता है | उसके लिए समय की कोई सीमा नहीं है | वह सदा, चौबीसों घंटे, शत प्रतिशत परमेश्र्वर के निर्देशन में कार्यों में संलग्न रहता है | ऐसे भक्त पर जो कृष्णभावनामृत में रत रहता है, भगवान् अत्यधिक दयालु होते हैं | वह समस्त कठिनाइयों के बावजूद अन्ततोगत्वा दिव्यधाम या कृष्णलोक को प्राप्त करता है | वहाँ उसका प्रवेश सुनिश्चित रहता है, इसमें कोई संशय नहीं है | उस परम धाम में कोई परिवर्तन नहीं होता, वहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्र्वत, अविनश्र्वर तथा ज्ञानमय होती है |