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अध्याय 18: उपसंहार - संन्यास की सिद्धि


श्लोक 60

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || ६० ||

शब्द-प्रतिशब्द अर्थ

स्वभाव-जेन - अपने स्वभाव से उत्पन्न;कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; निबद्धः - बद्ध; स्वेन - तुम अपने; कर्मणा - कार्यकलापों से; कर्तुम् - करने के लिए; न - नहीं; इच्छसि - इच्छा करते हो; यत् - जो; मोहात् - मोह से; करिष्यसि - करोगे; अवशः - अनिच्छा से; अपि - भी; तत् - वह ।

भावार्थ

इस समय तुम मोहवश मेरे निर्देशानुसार कर्म करने से मना कर रहे हो । लेकिन हे कुन्तीपुत्र! तुम अपने ही स्वभाव से उत्पन्न कर्म द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे ।

तात्पर्य

यदि कोई परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कर्म करने से मना करता है, तो वह उन गुणों द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य होता है, जिनमें वह स्थित होता है । प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के विशेष संयोग के वशीभूत है और तदानुसार कर्म करता है | किन्तु जो स्वेच्छा से परमेश्र्वर के निर्देशानुसार कार्यरत रहता है, वही गौरवान्वित होता है |