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अध्याय 2: गीता का सार


श्लोक 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ ५० ॥

शब्द-प्रतिशब्द अर्थ

बुद्धि-युक्तः — बुद्धियोग से युक्त; जहाति — त्याग देता है; इह — इस जीवन में; उभे — दोनों; सुकृतम् — पुण्य; दुष्कृतम् — पाप; तस्मात् — अतः; योगाय — योग के लिए; युज्यस्व — युक्त हो जाओ; योगः — कर्मयोग (कृष्ण भावनामृत); कर्मसु — कर्मों में; कौशलम् — कुशलता।

भावार्थ

बुद्धियोग से युक्त व्यक्ति इस जीवन में ही पुण्य और पाप — दोनों को त्याग देता है। अतः योग के लिए युक्त हो जाओ, क्योंकि योग कर्मों में परम कुशलता है।

तात्पर्य

अनादि काल से प्रत्येक जीव ने अपने शुभ तथा अशुभ कर्मों के अनेक फल अर्जित किए हैं, जिनके कारण वह बारंबार भौतिक सुख-दुख भोगता है। किन्तु जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करता है, वह इन समस्त प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो जाता है — चाहे वे शुभ हों या अशुभ। ऐसा कर्म जो कृष्ण की संतुष्टि के लिए किया जाए, वह सबसे श्रेष्ठ कर्म है, क्योंकि उससे बंधन नहीं होता।