क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥
क्रोधात् — क्रोध से; भवति — होता है; सम्मोहः — मोह (भ्रम); सम्मोहात् — मोह से; स्मृति-विभ्रमः — स्मृति का भ्रम या नाश; स्मृति-भ्रंशात् — स्मृति के भ्रष्ट होने पर; बुद्धि-नाशः — बुद्धि का नाश; बुद्धि-नाशात् — बुद्धि के नष्ट हो जाने पर; प्रणश्यति — मनुष्य पतित हो जाता है।
क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति का भ्रम होता है; स्मृति भ्रष्ट होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है, और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
जब मनुष्य क्रोधित होता है, तो वह भ्रमित हो जाता है — उसका विवेक क्षीण हो जाता है। इससे उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, और वह अपने आध्यात्मिक उद्देश्य को भूल जाता है। स्मृति भ्रष्ट होने से उसकी बुद्धि — यानी सही निर्णय लेने की शक्ति — नष्ट हो जाती है। जब बुद्धि नष्ट हो जाती है, तो वह मनुष्य पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। इसलिए श्रीकृष्ण यहाँ इस श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि कैसे एक साधारण विषय-चिंतन, अंततः आत्म-विनाश की ओर ले जा सकता है।