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अध्याय 3: कर्मयोग


श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || २३ ||

शब्द-प्रतिशब्द अर्थ

यदि – यदि; हि – निश्चय ही; अहम् – मैं; न – नहीं; वर्तेयम् – इस प्रकार व्यस्त रहूँ; जातु – कभी; कर्मणि – नियत कर्मों के सम्पादन में; अतन्द्रितः – सावधानी के साथ; मम – मेरा; वर्त्म – पथ; अनुवर्तन्ते – अनुगमन करेंगे; मनुष्यः – सारे मनुष्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; सर्वशः – सभी प्रकार से |

भावार्थ

क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे |

तात्पर्य

आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के लिए एवं सामाजिक शान्ति में संतुलन बनाये रखने के लिए कुछ परम्परागत कुलाचार हैं जो प्रत्येक सभ्य व्यक्ति के लिए होते हैं | ऐसे विधि-विधान केवल बद्धजीवों के लिए हैं, भगवान् कृष्ण के लिए नहीं, लेकिन क्योंकि वे धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे, अतः उन्होंने निर्दिष्ट नियमों का पालन किया | अन्यथा, सामान्य व्यक्ति भी उन्हीं के पदचिन्हों का अनुसरण करते क्योंकि कृष्ण परम प्रमाण हैं | श्रीमद्भागवत् से यह ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण अपने घर में तथा बहार गृहोस्थित धर्म का आचरण करते रहे |